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परिवारिक मूल्य और बच्चों की परवरिश में सामाजिक जुड़ाव का महत्व

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अभी त्यौहारों का सीजन खत्म हुआ। देव उठावनी एकादशी भी गई, शादी का माहौल बना हुआ है, सभी या तो त्यौहारों में या फिर अब शादियों में कही ना कहीं आने जाने में लग गए। यही तो मौका होता है की अपनों से मेल मुलाकात हो जाए, शिकवे, शिकायत कर लें, बच्चे अपने सो कॉल्ड एक्सटेंडेड परिवार से मिल लें, पता नहीं फिर कब मिलेंगे, अब तो फैमिली में भी दो फाड़ हो गया है। एक्सटेंडेड परिवार से मिलना भी जीवन में एक दो बार ही हो पाता है, कारण कुछ भी हो। जब से एकल परिवार का चलन हुआ है बच्चों को पता ही नहीं कौन क्या है? वे भी अजनबी ही लगते हैं। जो बच्चे  सब के साथ रहकर बिना मां पिता के सिखाए सीख जाते थे अब ये असंभव लगता है। उनके ऊपर पूरा प्रभाव मां पिता के विचारों का होता है या फिर ऑनलाइन यूनिवर्सिटी का।मां पिता जिस के बारे में जो सोचते हैं या आपस में बात करते हैं बच्चा वैसा ही मनोभाव बना लेता है, उसे कोई और तो बात पता ही नहीं होती, फिर परिवार में बच्चे के बारे में गलत विचार, जो शायद सच नहीं हो, धारणा बनती जाती है। कहा जाता है मनुष्य सामाजिक प्राणी है, समाज में रहने और अपना महत्वपूर्ण स्थान बनाने के लिए, सामाजिक रीति रिवाज और चलन जान ना जरूरी होता है और बचपन से ही इसकी नींव पड़ जाए तो वास्तविक जीवन में पदार्पण करने पर कोई सकुचाहट या अनभिज्ञता  महसूस नहीं होती है। अभिभावकों की जिम्मेदारी है कि बच्चों को कैसे पाले, रखें। पर अच्छा नागरिक बनाने के लिए  सुद्धीर्ण नींव डालनी भी आवश्यक है। प्रयास करना होगा श्रेष्ठ भारत बनाने के लिए

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